संकरवार वंश
भारत के मध्यकालीन ऐतिहासिक अभिलेखों के मुताबिक 1528 में बाबर का सिपहसालार
'मीर बाक़ी' जब अपनी फौज को लेकर पूरब की ओर बढ़ रहा था तब कानपुर के पास 'मदारपुर'
में ब्राह्मण जमींदारों की एक बहादुर फौज के साथ मुगलों का भयानक युद्ध हुआ। ब्राह्मण
योद्धा बहादुरी से लड़े लेकिन मुगलों की आग उगलती तोपों और बंदूकों (Matchlocks) के सामने इन
देसी जांबाजों की तलवारें, भाले, बरछे और तीर-कमान काम नहीं आए। इन नए विदेशी हथियारों
के सामने बहादुरी को हार जाना पड़ा। 'कान्यकुब्ज बंशावली' के मुताबिक इस युद्ध में
पानीपत के तीसरे युद्ध से भी ज्यादा रक्तपात हुआ था और सभी ब्राह्मण योद्धा वीरगति
को प्राप्त हो गए।
मदारादिपुराख्यस्य
भुइंहारा द्विजास्तु ये।
तेभ्यश्च
यवनेण्दै्रश्च महद्युद्धमभूत्पुरा॥ 2॥
तेभ्यश्चब्राह्मणा:
सर्वे परास्ता अभवंस्तत:॥
इस
युद्ध के बाद इन योद्धाओं के जीवित बचे इक्के दुक्के परिजन पूरब की ओर प्रस्थान कर
गए। स्वामी सहजानंद सरस्वती के मुताबिक सकरवार वंश का मूल स्थान फतेहपुर जिले का फतुहाबाद
है, जो कानपुर से ज्यादा दूरी पर नहीं है। इतिहासकार डॉ. Anand Burdhan के मुताबिक
यह एक घोर आश्चर्य का विषय है कि खानवा में राणा सांगा के बाद आक्रमणकारी मुगलिया फौज
के सामने मदारपुर ही आखिरी बड़ी चुनौती था लेकिन इतिहासकार इस खूनी जंग के बारे में
चुप्पी साध गए । मदारपुर के युद्ध के बाद गर्भू तिवारी के अलावा कोई ब्राह्मण नहीं
बचा। और इन्ही गर्भू तिवारी से 'कश्यप गोत्रिय भूमिहार ब्राह्मणों' का वंश आगे बढ़ा।
ये कथन युद्ध की भयावहता को दर्शाने के लिए तथ्यों का सरलीकरण लगता है। मदारपुर का
युद्ध सन् 1528 में हुआ लेकिन उससे काफी पहले गहडवाल राजाओं के शासन काल में ही कश्यप
गोत्रिय भूमिहार ब्राह्मण काशी क्षेत्र में आ चुके थे और 'इब्राहिम लोधी' के शासन काल
से पहले ही गाजीपुर, बलिया, मऊ और आजमगढ़ में उक्त कुल के कई गांव अस्तित्व में आ चुके
थे।
अब
चूंकि तमाम ऐतिहासिक स्रोत 'सांकृत गोत्रिय सकरवार कुल' के सकराडीह पर आगमन का समय
मदारपुर के युद्ध के बाद साबित करते हैं, इसलिए नि:संदेह मदारपुर का युद्ध सांकृत गोत्रीय
भूमिहार ब्राह्मणोंं के जांबाज पूर्वजों ने ही लड़ा था।
अंगरेजी राज के एक पुराने गजेटियर
से मिले 'सकरवार कुल' के वंशवृक्ष के मुताबिक सकरवार कुल के पूर्वज पंडित काम देव मिश्र
और पंडित धाम देव मिश्र ने सन् 1530 ई. के आस-पास सकराडीह को आबाद किया...
अब
सकरवार नाम ब्राह्मणों का विवरण सुनिये। ये ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण सांकृत
गोत्रवाले फतुहाबाद के मिश्र हैं। जो उच्चय
श्रेरि की वीर आर्य कबीली जातिया अन्य ब्राह्मणों
की तरह (उल्लेखनीय है कि प्राचीन काल में कन्नौज का एक गरिमापूर्ण इतिहास रहा है इसे कान्यकुब्ज कहा जाता था। रामायण काल में यह राजा बालि की नगरी रही है। कान्यकुब्ज का इतिहास सतयुग तक जाता था। सतयुग में इसे ‘महोदय’ कहा गया, त्रेता में ‘कुशस्थली’ फिर ‘गाधिपुरी’ और बाद में ‘कान्यकुब्ज’- कृते महोदयं नाम त्रेतायां च कुशस्थली।
पुन: गाधिपुरी जातं कान्यकुब्ज यत: परम।।
कन्नौज का बिलग्राम ही ‘बालिग्राम’ है। यह विष्णु का प्रिय निवास था। इसे गुह्यतीर्थ कहा गया। यही महाराज कुंशनाभ की सौ पुत्रियों जिन्हें पवनदेव ने कुब्जा बना दिया था, का पाणिग्रहण काम्पिल्य के ब्रह्मदत्त के साथ हुआ था। भरत की माता शकुंतला के पालनकर्ता कण्व के शिष्यों ने गंगातट पर कुब्जकपुष्पों से परिवेष्ठित कण्वकुब्जिका यहीं विकसित की। कालांतर में इसे कान्यकुब्ज कहा गया। कान्य और कुब्ज नामक दो भाई राजा राम द्वारा यज्ञ में आमंत्रित किए गए थे। यज्ञ स्थल पहुँचने पर कुब्ज को लगा कि राम ने ब्राह्मण वध किया है, अत: यज्ञ में सम्मिलित होना उचित नहीं है। फलत: कुब्ज लौट गए और कान्य ने यज्ञ में दानादि लिया और वहीं रह गए। कुब्ज के साथ जो लौट गए वहीं कान्यकुब्ज कहलाए और कान्य के साथी जो सरयूपार बस गए वही सरयूपारीण कहलाए।) सकरवार के पूरवज काम देव मिश्रा और धाम देव मिश्रा थे। काम देव और धाम देव के कई शादियाँ का प्रमाण मिलता है जिनसे सिकरीवार राजपूतों भी हुवे है जो मध्य प्रदेश और सिकरीवार राजपूतों का जो आगरे की तरफ पाये जाते हैं सिकरवार' शब्द राजस्थान के 'सिकार' (Sikar) जिले से बना है।
यह जिला सिकरवार ने ही स्थापित किया था।
इसके बाद इन्होने 823 ई° में "विजयपुर सीकरी" की स्थापना की।
बाद में {{खानवा के युद्ध|}} में जीतने के बाद 1527 ई° में बाबर ने "{{फतेहपुर सीकरी|}}" नाम रख दिया।
इस शहर का निर्माण चित्तोण के महाराज राणा भत्रपति के शाशनकाल में 'खान्वजी सिकरवार' के द्वारा हुआ था।
1527 ई में 'राव धाम देव सिंह सिकरवार' ने " खानवा के युद्ध" में राणा संगा (संग्राम सिंह) की {{बाबर|}} के विरुद्ध मदद की।
बाद में अपने वंश को बाबर से बचाने के लिये सीकरी से निकल लिये। मदारपुर का युद्ध सन् 1528 में लड़ने के वाद 1528 में ही सकराडीह पर आकर अपने लोगो के साथ बसे ।
पुन: गाधिपुरी जातं कान्यकुब्ज यत: परम।।
कन्नौज का बिलग्राम ही ‘बालिग्राम’ है। यह विष्णु का प्रिय निवास था। इसे गुह्यतीर्थ कहा गया। यही महाराज कुंशनाभ की सौ पुत्रियों जिन्हें पवनदेव ने कुब्जा बना दिया था, का पाणिग्रहण काम्पिल्य के ब्रह्मदत्त के साथ हुआ था। भरत की माता शकुंतला के पालनकर्ता कण्व के शिष्यों ने गंगातट पर कुब्जकपुष्पों से परिवेष्ठित कण्वकुब्जिका यहीं विकसित की। कालांतर में इसे कान्यकुब्ज कहा गया। कान्य और कुब्ज नामक दो भाई राजा राम द्वारा यज्ञ में आमंत्रित किए गए थे। यज्ञ स्थल पहुँचने पर कुब्ज को लगा कि राम ने ब्राह्मण वध किया है, अत: यज्ञ में सम्मिलित होना उचित नहीं है। फलत: कुब्ज लौट गए और कान्य ने यज्ञ में दानादि लिया और वहीं रह गए। कुब्ज के साथ जो लौट गए वहीं कान्यकुब्ज कहलाए और कान्य के साथी जो सरयूपार बस गए वही सरयूपारीण कहलाए।) सकरवार के पूरवज काम देव मिश्रा और धाम देव मिश्रा थे। काम देव और धाम देव के कई शादियाँ का प्रमाण मिलता है जिनसे सिकरीवार राजपूतों भी हुवे है जो मध्य प्रदेश और सिकरीवार राजपूतों का जो आगरे की तरफ पाये जाते हैं सिकरवार' शब्द राजस्थान के 'सिकार' (Sikar) जिले से बना है।
यह जिला सिकरवार ने ही स्थापित किया था।
इसके बाद इन्होने 823 ई° में "विजयपुर सीकरी" की स्थापना की।
बाद में {{खानवा के युद्ध|}} में जीतने के बाद 1527 ई° में बाबर ने "{{फतेहपुर सीकरी|}}" नाम रख दिया।
इस शहर का निर्माण चित्तोण के महाराज राणा भत्रपति के शाशनकाल में 'खान्वजी सिकरवार' के द्वारा हुआ था।
1527 ई में 'राव धाम देव सिंह सिकरवार' ने " खानवा के युद्ध" में राणा संगा (संग्राम सिंह) की {{बाबर|}} के विरुद्ध मदद की।
बाद में अपने वंश को बाबर से बचाने के लिये सीकरी से निकल लिये। मदारपुर का युद्ध सन् 1528 में लड़ने के वाद 1528 में ही सकराडीह पर आकर अपने लोगो के साथ बसे ।
काम देव मरिश्रा और धाम देव
मिश्रा ने अपने लोगो जिसमे यादव भी थे के साथ फतेहपुर सिकरी को छोङ कर माँ कमछ्या के
साथ सकराडीह पर आकर बस गये। वहाँ से आकर इनके पूर्वज प्रथम रेवतीपुर, गहमर और करहिया
ग्रामों (जो गाजीपुर के जमानियाँ परगने में हैं) के बीच में रहने वाले सकरा नामक स्थान
में बसे। जो अब भी नाम के लिए डीह के रूप में ऊँचा स्थान पड़ा हुआ हैं और वहाँ मकान
वगैरह कुछ भी नहीं रह गये हैं। परन्तु लोग उसे 'सकराडीह' अब तक पुकारते ही हैं। फिर
वहाँ से बहुत विस्तार होने या और अनुकूलताओं एवं प्रतिकूलताओं के कारण वे लोग हटकर
रेवतीपुर, शेरपुर, सुहवल तथा आरा जिले के सैकड़ों गाँवों मे जा बसे और उस जिले का सरगहा
परगना और जमानियाँ परगने का बहुत सा भाग अब छेंके हुए हैं, बल्कि मुहम्मदाबाद परगने
(गाजीपुर) में भी शेरपुर, रामपुर, हरिहरपुर आदि गाँवों में रहते थे। अन्त में सकराडीह
से हटकर चारों ओर बसे। इसीलिए सकरा में रहने के समय अपना पूर्व स्थान फतहपुर ही बतलाते
थे। परन्तु जब वहाँ से भी हटे तो सकरा ही पूर्व स्थान बतलाने लगे। लेकिन पूर्व का फतूहाबाद
या फतहपुर नहीं छूटा, इसलिए सकरवार कहलाने पर भी पूछने पर यही कहते थे कि फतहपुर सकरा
से आये हैं, क्योंकि फतहपुर के साथ सकरा भी जुड़ गया। काल पाकर सकरा की जगह सकरी और
सिकरी भी कहलाने लगा और फतहपुर प्रथम का था ही। फतेहपुर सीकरी से आये हैं, जो आगरे
के पास हैं। सिकरीवार राजपूतों के (जो आगरे के पास और अन्य जिलों में तथा ग्वालियर
में विशेष रूप से पाये जाते हैं) सिकरीवार और सकरवार को एक ही हैं अर्थात् सिकरीवार
राजपूतों का जो आगरे की तरफ पाये जाते हैं, ऐसा अन्वेषण करने से पता लगा हैं। और इस
बात को स्वीकार करते हुए मिस्टर शेरिंग ने भी अपनी जाति विषयक अंग्रेजी पुस्तक के प्रथम खण्ड के 189 पृष्ठ में सकरवारों के वर्णन
प्रसंग में सिकरीवार क्षत्रियों का शाण्डिल्य गोत्र & सांकृत गोत्र ही लिखा हैं। जैसा कि 'They
are Sandel gotra or order. से अंग्रेजों ने भी लिख दिया हैं कि ''गाजीपुर के प्राचीन
राजा गाधि के चार पुत्र अचल, विचल, सारंग और रोहित थे, जिनके ही वंशज रेवतीपुर, सुहवल
और सरंगहा परगना आदि स्थानों के सकरवार हैं'' , सकरवार
ब्राह्मण तो सुहवल, रेवतीपुर, रामपुर और शेरपुर एवं सरंगहा आदि में भरे पड़े हैं। अत:
इन सकरवार राजपूतों के विषय में वही बात विश्वसनीय हैं,
यद्यपि कोई-कोई ऐसा सिद्ध करने का साहस कर सकते हैं कि जो सिकरीवार राजपूत
पश्चिम में पाये जाते हैं, उन्हीं की एक शाखा ये सकरवार राजपूत भी हैं जो सिकरीवार राजपूत पश्चिम में पाये जाते हैं• राव जयराज सिंह सिकरवार के तीन पुत्र क्रमशः थे --
1 - काम देव सिंह सिकरवार(दलपति)
2 - धाम देव सिंह सिकरवार (राणा संगा के मित्र)
3 - विराम सिंह सिकरवार
• काम देव सिंह सिकरवार जो दलखू बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए, ने {{मध्यप्रदेश|}} के जिला {{मुरैना|}} में जाकर अपना वंश चलया।
• कामदेव सिकरवार (दलकू) सिकरवार की वंशावली • ===>>>
चंबल घाटी के सिकरवार राव दलपत सिंह यानि दलखू बाबा के वंशज कहलाते हैं ...
दलखू बाबा के गॉंव इस प्रकार हैं –
सिरसैनी – स्थापना विक्रम संवत 1404
भैंसरोली – स्थापना विक्रम संवत 1465
पहाड़गढ़ – स्थापना विक्रम संवत 1503
सिहौरी - स्थापना बिवक्रम संवत 1606
इनके परगना जौरा में कुल 70 गॉंव थे , दलखू बाबा की पहली पत्नी के पुत्र रतनपाल के ग्राम बर्रेंड़ , पहाड़गढ़, चिन्नौनी, हुसैनपुर, कोल्हेरा, वालेरा, सिकरौदा, पनिहारी आदि 29 गॉंव रहे
भैरोंदास त्रिलोकदास के सिहोरी, भैंसरोली, "खांडोली" आदि 11 गॉंव रहे
हैबंत रूपसेन के तोर, तिलावली, पंचमपुरा बागचीनी , देवगढ़ आदि 22 गॉंव रहे
दलखू बाबा की दूसरी पत्नी की संतानें – गोरे, भागचंद, बादल, पोहपचंद खानचंद के वंशज कोटड़ा तथा मिलौआ परगना ये सब परगना जौरा के ग्रामों में आबाद हैं , गोरे और बादल मशहूर लड़ाके रहे हैं
राव दलपत सिंह (दलखू बाबा) के वंशजों की जागीरें – 1. कोल्हेरा 2. बाल्हेरा 3. हुसैनपुर 4. चिन्नौनी (चिलौनी) 5. पनिहारी 6. सिकरौदा आदि रहीं
मुरैना जिला में सिहौरी से बर्रेंड़ तक सिकरवार राजपूतों की आबादी है, आखरी गढ़ी सिहोरी की विजय सिकरवारों ने विक्रम संवत 1606 में की उसके बाद मुंगावली और आसपास के क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया , इनके आखेट और युद्ध में वीरता के अनेकों वृतांत मिलते हैं ।
और सिकरीवार शब्द ही बिगड़ते-बिगड़ते सकरवार हो गया
हैं। यदि इन सकरवार क्षत्रियों को गाधिवंशजों या सिकरीवार क्षत्रियों से ही मिलाने
का कोई यत्न करे तो अच्छा हैं, वे लोग उधर ही जा मिलें। इससे भी सकरवार ब्राह्मणों
का कोई हर्ज नहीं हैं। ये लोग तो कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं ही। जैसे अयाचक ब्राह्मणों
और राजपूतों में सकरवार नाम वाले पाये जाते हैं, वैसे ही मैथिल ब्राह्मणों में भी सकरीवार
या सकरवार नाम वाले ब्राह्मण पाये जाते हैं। यह नाम उन लोगों के प्रथम सकरी स्थान में
रहने से हैं, जो दरभंगा शहर से उत्तर-पूर्व में स्थित हैं और बंगाल नार्थ-वेस्टर्न
रेलवे की मधुबनी और झंझारपुर वाली लाइनों का जंक्शन हैं। इस कथन का यहाँ तात्पर्य यह
हैं कि एक ही नाम वाले एक या भिन्न-भिन्न स्थानों में रहने से अनेक जातियों के लोग
एक ही नाम वाले हो सकते हैं। परन्तु इससे उनके एक जाति सम्बन्धी होने का संशय नहीं
किया जा सकता। अत: निर्विवाद सिद्ध हैं कि ब्राह्मणों का सकरवार भी नाम प्रथम सकराडीह
के निवास से ही पड़ा हैं। काम देव मिश्र के चार पुत्रो
1-अचल
मिश्र
2-विचल
मिश्र
3-सारंग
मिश्र
4-रोहित
मिश्र
हुए
.अचल
मिश्र
के
दो
पुत्रो
मे
रेवसर
मिश्र
ने
नगसर
गाव
बसाया
व
हरिश्चन्द्र
मिश्र
के
पाच
पुत्र
राजमल
मिश्र
से
तिलवा
,संसारमल
मिश्र
से
सुहवल
व
गौरा
,गोसाई
मिश्र
से
रमवल,सैंनुमल
से
राजपूत
हुए
व
पूरणमल
मिश्र
मिश्र
के
7पुत्रो
मे
नाहरदेव
से
कमसार
के
पठान
हुए
,रतन
देव
से
बसुखा
हिन्दुराव
से
रेवतीपुर
व
हरिहरपुर
तेजमल
राय
से
पकड़ी
,जतन
राय
से
ड़ेड़गावा
,ठकुराई
राय
व
सहजमल
राय
से
रेवतीपुर
बसा
.सहजमल
राय
के
पुत्र
बहोरिक
राय
हुए
व
बहोरिक
राय
के
दुल्लह
राय
जो
गंगा
नदी
पारकर
आकर
अपना
डेरा
ज़माया
.दुल्लह राय के चार पुत्र हुए 1-मानसिन्ह राय 2-सीरसिन्ह राय 3-हेरसीन्ह राय 4-गंभीर सिंह राय .कुतलू से युध्य मे सीरसिंह राय शहीद हो गये ,ज़िसका बदला लेने के लिए उनके भैया मानसिन्घ राय ने कुतलू के किले मे घूसकर उसे मार गीराया . परशुराम राय को हिस्सा नहीं मिल रहा था। लेकिन उनके छोटे चाचा ने परशुराम राय का पक्ष रखे की जहा जहा जब जब ररूरत पड़ी भाई की तरह सभी के साथ खडा रहा और हिस्से भी भाई की
ही तरह मिलना चाहिये। तभी जकर परशुराम राय को
हिस्से दारी मिली। दूसरा पहलू ये
कहता है की
पशुराम राय तेज
तरॉक थे। जिन्हे
ये लोग अपना
युवराज मानते थे। जो
की दूल्ह राय
के बड़े पौत्र
थे। जिनके कारण
मानसिंह राय परशुराम
राय के कारण मानसिंह राय परशुराम
राय के कारण संकरवारो के नाम,यस ,कृति नदी की बाढ़
की तरह फैलने
लगीं और संकरवार
की शक्ति दूज
के चॉँद से
बढ़कर पूरनमासी का
चॉँद हो गई। मानसिंह
राय परशुराम राय
यह दोनों वीर
कभी चैन से
न बैठते थे।
रणक्षेत्र में अपने
हाथ का जौहर
दिखाने की उन्हें
धुन थी। सुख-सेज पर
उन्हें नींद न
आती थी। और
वह जमाना भी
ऐसा ही बेचैनियों
से भरा हुआ
था। उस जमाने
में चैन से
बैठना दुनिया के
परदे से मिट
जाना था। बात-बात
पर तलवांरें चलतीं
और खून की
नदियॉँ बहती थीं।
यहॉँ तक कि
शादियाँ भी खूनी
लड़ाइयों जैसी हो
गई थीं। लड़की
पैदा हुई और
शामत आ गई।
हजारों सिपाहियों, सरदारों और
सम्बन्धियों की जानें
दहेज में देनी
पड़ती थीं । लेकिन संकरवारो ने कभी अपने शादी के लिये ,किसी का डोरा के
लिये कही किसी के साथ युध्य नहीं किये और ना ही किसी का धन लूटने के लिये कोई युध्य
किये। ये तो वोरो की आर्य जाती है, जो अपनी मान मर्यादा देश की एकता अखण्ड़ता एवं धर्म
रक्षा के मर मिटने को तैयार रहते है। और इसी लिये मर मिटे भी है। और ये भी सही
है की हमेशा राज्य के सीमा पर ही रहते थे। जहा भी सबसे मुश्किल और खतरनाक राज्य की
सिमा होती थी जहा से दुश्मनो का भय सदैव रहता थे राजा लोग वही इन लोगो को रहने की बेवस्था
करते थे चाहे वो फतेहपुर सिकड़ी हो या सकरडीह। पृथ्वीराज चौहान के परम
मित्र संजम भी
महोबा की इसी
लड़ाई में मारे
गए थे जिनको
आल्हा उदल के
सेनापति बलभद्र तिवारी जो
कान्यकुब्ज और कश्यप
गोत्र के थे
उनके द्वारा मारा
गया था l वह
शताब्दी वीरों की सदी
कही जा सकती
है।कुतलू के युध्य में सीरसिंह राय के मरने के बाद लोगो में सलाह मशिवरा होने लगा लोग तरह तरह की बाते करने लगे। माना गया की झाड़ू से कही आधी नहीं रूकती है आगे का कार्य करिये । ,कुतलू को मरने का जिम्मा मानसिंह राय को सौंपा गया और परशुराम राय को बाहर का भार सौंपा गया । एक सोची समझी रणनीति थी और
यही हुआ . कुतलू ने शेर व
पहलवान को पाले
थे और उसको
लगा की मै
तो पूरी तरह
से सुरक्षित हु
लेकिन परशुराम राय
ने दोनों शेरो
को उलझाकर मार
डाले और उसी
समय मानसिंह राय
कुतलू को अन्दर
जाकर उनकी पत्नी
व परिवार के
सामने युध्य में
मार डाले तलू
उसिया सेवराई जमनिया
परगना का माना
जाना एक जागीरदार
थे। जिनका दबदबा
न सिर्फ
उसिया सेवराई कत ही बल्कि उत्तर दिशा में आज के करीमुद्दीन पुर कैरइल क्षेत्र जिला गाज़ीपुर तक था।
जो अपनी निरंकुशा व बल के कारण अन्य लोगो पर जुल्म किया करते थे। जिनका हल उसिया सेवराई से शुरू होता तो आज के करीमुद्दीन पुर कैरइल क्षेत्र में जाकर पानी पीकर वापस आता। जहा तक हल जाता उस जमीन को कुतलू अपना मानते व अधिकार दर्शाते थे। उनके कार्य शैली से आम जान में आक्रोश था। उनका हल शेरपुर के होकर भी जाता था लेकिन जब शेरपुर के लोगो ने उनका अधिकार का खंडन किये और उनकी गुलामी पसन्द नहीं किये तो कुतलू आग बबूला हो कर शेरपुर के लोगो के अधिकृत भू- भाग का हनन करने लगे। जिसका शेरपुर के आम जान ने बिरोध किया। अन्त में उसिया सेवराई और करीमुद्दीन पुर के बीच से शेरपुर को हटाने की ठान लिये और तरह- तरह से परेशान करने लगे। जिनको रोकने के लिये सीरसिंह राय के साथ प्रथम युध्य का बिबरण मिलता है। जिसमे सीरसिंह रायशहीद हो गये थे तभी पशुराम राय को हिस्सा मिला और नाम पर पट्टी बनी भी बनी यही नहीं शेरपुर के असली संथापक पशुराम राय को ही माना जाता है।
शेरपुर लोगो और उसिया के कुतलू का युध्य
करि तैयारी सभी चलने की। गंगा तट पर पहुची जाय ।।
पाती खोल कर हीरसिंह वाचा। और अपने दल को दिया सुनाई ।।
तुम सभ बढ़ो आगे को।पीछे मै भी पहुंची आय।।
पार किये मिल सभी नदी को।हीरसिंह घर को लौटा आय।।
पहुचे जब मेढ़ो के उपर कुतलू को खबर हो जाय।।
कुतलू भेजा अपने दल को , था ठकता किसी बात का नाय।।
बात- बात में बाते बढ गयी , होने लगी बातो की टकरार ।।
गरज से बोले पशुराम जो थे संकरवार दल के सरदार।।
ऊंची वाणी फिर मत बोलना, ऊंची बानी हम सुनते नहीं ।।
संभल से रहियो अपने कुनबे में, मन का अरमान दिऊ मिटाय ।।
मची लड़ाई दोनों दल में ,जिसमे थे 700 पहलवान ।।
बोले पशुराम अपने चाचा से ,चाचा सुनलो ध्यान लगाय ।।
तुम चले जाओ कुतलू पर ,कर दो उसका काम तमाम ।।
मै देखू गा इन पाजियों को कर दूगा सभी का काम तमाम ।।
ऐसे वाणी बोले यादवो पर ,यादवो काल बारन हो जाय ।।
करी भरोसा अपने भुजबल पर ,और आगे को बढ़ी जाय ।।
सुमिरन किये माँ कामक्ष्या की, ली बजरंग बलि का नाम ।।
छोड़ लड़ाई पशुराम भरोसे ,मानसिंहराय कुतलू पर पहुंची जाय ।।
आते देख मानसिंह को , भूखा शेर कुतलू ने दिया छोड़ाय ।।
पड़ी लड़ाई जब शेरो से ,सभी संकरवार गये सनाटा खाय ।।
सुर्खी उड़ गयी होटो की , फिर आपस में हुई बिचार ।।
मानुष हो तो कोई भी लड़े ,शेरो से कैसे निपटा जाय ।।
गिरता हौसला देख जवानो का, पशुराम राय ने लिया वीणा उठाय ।।
पाल पोष कर बड़ा किये ,अब आयी कुक्ष करने की बार ।।
छोड़ आसरा जिन्दगानी की , वह शेरो से लिपटा जाय ।।
पटक -पटक कर शेरो को मारा , देखते शेर दूर भाग जाय ।।
मौका मिल गया मानसिंहको , कुतलू पर किये वॉर पर वॉर ।।
बड़ी देर तक मची लड़ाई , होने लगी वॉर पर वॉर ।।
कोई तेजा ,कोई भला ,कोई तरवारो से करे वॉर ।।
लाठी भाजे यादव बंसी ,दोनों दल इधर -उधर हो जाय ।।
उठाया तेजा पीतल वाली ,थी जिसपर दो अंगुल की धार ।।
धुमाय से मारा ऐसे तेजा ,कुतलू दो खंड हो जाय ।।
सर काट लियो कुतलू का , उसके दल में मची हहाकार ।।
भाग चले उसिया वाले ,अब कहि दिखे उन्हें ,कोई ठिकाना नहीं ।।
बदला ले लियो सीरसिंह राय का,अब रहा खुशी का ठिकाना नाही ।।
सीमा निर्माण शेरपुर के कर्म योगियों ने अपनी कर्मठता और वीरता से भागल नाला जो की वीर पुर गाँव के पास से होकर निकलता है उसी से चलते हुए कुन्डेशर के साथ साथ सेमरा के पास भागल नाला तक फैलाये थे। उस समय वीरपुर गाँव के नागरिक शेरपुर के अपने निकलने और शौचालय के लिए शेरपुर से जमीन मांगे थे वीरपुर गाँव कुन्डेशर और भी अन्य गाँव उस समय गुलाम गाँव थे। कुतलू के मारे जाने के बाद शेर पुर के लोगो ने कुतलू के पुरे जमीन पर अपना कब्जा नहीं दर्शाये बल्कि लोगो को गुलामी से मुत्ति दिलाये और जमीन उन्हें सौंपे। औरंजेब के समय जजिया कर का भी शेरपुर का लोगो ने भुगतान किये है। खुनो में कील ठोक्वाना उस समय की कर भुगतान नहीं करने की सजा हुआ करती थी जो किसी ना किसी रूप में आज तक समाज में देश में प्रचलित है। उस समय कर अदा नहीं करने के कारण मिस्लिम धर्म अपनाये जो कमसार के लोग है। कर के कारण लोग गाँव से परायन कर जाते थे लोग बोलते की सिलहट को गये। बहुत सारे अभी भी बोलते है की बाप दादा ने बालू फाक कर खेतो की रछा किये ऐसी बातें निराधार है बालू खाने की चीज नहीं होता ,अर्थात किसी प्रकार से कर भुगतान किये।
परशुराम राय के चार पुत्र1-रामशह राय 2-चन्द्र भान राय 3-गाना राय व 4-मेदीनी राय हुए., मेदीनी राय- है,मेदीनी राय के पुत्र गोनराज राय हुए ज़िनके दर्शन राय व फत्ते राय दो पुत्र हुए .ज़िनमे दर्शन राय को संतान नही हुयी व फत्ते राय के छह पुत्र 1-भगत राय 2-शिवन राय ,3-लोटन राय 4-जशन राय 5-शिव नारायन राय व 6-भौकाल राय हुए .
उसिया सेवराई कत ही बल्कि उत्तर दिशा में आज के करीमुद्दीन पुर कैरइल क्षेत्र जिला गाज़ीपुर तक था।
जो अपनी निरंकुशा व बल के कारण अन्य लोगो पर जुल्म किया करते थे। जिनका हल उसिया सेवराई से शुरू होता तो आज के करीमुद्दीन पुर कैरइल क्षेत्र में जाकर पानी पीकर वापस आता। जहा तक हल जाता उस जमीन को कुतलू अपना मानते व अधिकार दर्शाते थे। उनके कार्य शैली से आम जान में आक्रोश था। उनका हल शेरपुर के होकर भी जाता था लेकिन जब शेरपुर के लोगो ने उनका अधिकार का खंडन किये और उनकी गुलामी पसन्द नहीं किये तो कुतलू आग बबूला हो कर शेरपुर के लोगो के अधिकृत भू- भाग का हनन करने लगे। जिसका शेरपुर के आम जान ने बिरोध किया। अन्त में उसिया सेवराई और करीमुद्दीन पुर के बीच से शेरपुर को हटाने की ठान लिये और तरह- तरह से परेशान करने लगे। जिनको रोकने के लिये सीरसिंह राय के साथ प्रथम युध्य का बिबरण मिलता है। जिसमे सीरसिंह रायशहीद हो गये थे तभी पशुराम राय को हिस्सा मिला और नाम पर पट्टी बनी भी बनी यही नहीं शेरपुर के असली संथापक पशुराम राय को ही माना जाता है।
शेरपुर लोगो और उसिया के कुतलू का युध्य
करि तैयारी सभी चलने की। गंगा तट पर पहुची जाय ।।
पाती खोल कर हीरसिंह वाचा। और अपने दल को दिया सुनाई ।।
तुम सभ बढ़ो आगे को।पीछे मै भी पहुंची आय।।
पार किये मिल सभी नदी को।हीरसिंह घर को लौटा आय।।
पहुचे जब मेढ़ो के उपर कुतलू को खबर हो जाय।।
कुतलू भेजा अपने दल को , था ठकता किसी बात का नाय।।
बात- बात में बाते बढ गयी , होने लगी बातो की टकरार ।।
गरज से बोले पशुराम जो थे संकरवार दल के सरदार।।
ऊंची वाणी फिर मत बोलना, ऊंची बानी हम सुनते नहीं ।।
संभल से रहियो अपने कुनबे में, मन का अरमान दिऊ मिटाय ।।
मची लड़ाई दोनों दल में ,जिसमे थे 700 पहलवान ।।
बोले पशुराम अपने चाचा से ,चाचा सुनलो ध्यान लगाय ।।
तुम चले जाओ कुतलू पर ,कर दो उसका काम तमाम ।।
मै देखू गा इन पाजियों को कर दूगा सभी का काम तमाम ।।
ऐसे वाणी बोले यादवो पर ,यादवो काल बारन हो जाय ।।
करी भरोसा अपने भुजबल पर ,और आगे को बढ़ी जाय ।।
सुमिरन किये माँ कामक्ष्या की, ली बजरंग बलि का नाम ।।
छोड़ लड़ाई पशुराम भरोसे ,मानसिंहराय कुतलू पर पहुंची जाय ।।
आते देख मानसिंह को , भूखा शेर कुतलू ने दिया छोड़ाय ।।
पड़ी लड़ाई जब शेरो से ,सभी संकरवार गये सनाटा खाय ।।
सुर्खी उड़ गयी होटो की , फिर आपस में हुई बिचार ।।
मानुष हो तो कोई भी लड़े ,शेरो से कैसे निपटा जाय ।।
गिरता हौसला देख जवानो का, पशुराम राय ने लिया वीणा उठाय ।।
पाल पोष कर बड़ा किये ,अब आयी कुक्ष करने की बार ।।
छोड़ आसरा जिन्दगानी की , वह शेरो से लिपटा जाय ।।
पटक -पटक कर शेरो को मारा , देखते शेर दूर भाग जाय ।।
मौका मिल गया मानसिंहको , कुतलू पर किये वॉर पर वॉर ।।
बड़ी देर तक मची लड़ाई , होने लगी वॉर पर वॉर ।।
कोई तेजा ,कोई भला ,कोई तरवारो से करे वॉर ।।
लाठी भाजे यादव बंसी ,दोनों दल इधर -उधर हो जाय ।।
उठाया तेजा पीतल वाली ,थी जिसपर दो अंगुल की धार ।।
धुमाय से मारा ऐसे तेजा ,कुतलू दो खंड हो जाय ।।
सर काट लियो कुतलू का , उसके दल में मची हहाकार ।।
भाग चले उसिया वाले ,अब कहि दिखे उन्हें ,कोई ठिकाना नहीं ।।
बदला ले लियो सीरसिंह राय का,अब रहा खुशी का ठिकाना नाही ।।
सीमा निर्माण शेरपुर के कर्म योगियों ने अपनी कर्मठता और वीरता से भागल नाला जो की वीर पुर गाँव के पास से होकर निकलता है उसी से चलते हुए कुन्डेशर के साथ साथ सेमरा के पास भागल नाला तक फैलाये थे। उस समय वीरपुर गाँव के नागरिक शेरपुर के अपने निकलने और शौचालय के लिए शेरपुर से जमीन मांगे थे वीरपुर गाँव कुन्डेशर और भी अन्य गाँव उस समय गुलाम गाँव थे। कुतलू के मारे जाने के बाद शेर पुर के लोगो ने कुतलू के पुरे जमीन पर अपना कब्जा नहीं दर्शाये बल्कि लोगो को गुलामी से मुत्ति दिलाये और जमीन उन्हें सौंपे। औरंजेब के समय जजिया कर का भी शेरपुर का लोगो ने भुगतान किये है। खुनो में कील ठोक्वाना उस समय की कर भुगतान नहीं करने की सजा हुआ करती थी जो किसी ना किसी रूप में आज तक समाज में देश में प्रचलित है। उस समय कर अदा नहीं करने के कारण मिस्लिम धर्म अपनाये जो कमसार के लोग है। कर के कारण लोग गाँव से परायन कर जाते थे लोग बोलते की सिलहट को गये। बहुत सारे अभी भी बोलते है की बाप दादा ने बालू फाक कर खेतो की रछा किये ऐसी बातें निराधार है बालू खाने की चीज नहीं होता ,अर्थात किसी प्रकार से कर भुगतान किये।
परशुराम राय के चार पुत्र1-रामशह राय 2-चन्द्र भान राय 3-गाना राय व 4-मेदीनी राय हुए., मेदीनी राय- है,मेदीनी राय के पुत्र गोनराज राय हुए ज़िनके दर्शन राय व फत्ते राय दो पुत्र हुए .ज़िनमे दर्शन राय को संतान नही हुयी व फत्ते राय के छह पुत्र 1-भगत राय 2-शिवन राय ,3-लोटन राय 4-जशन राय 5-शिव नारायन राय व 6-भौकाल राय हुए .
2-चन्द्र भान राय -नारायण राय
,रामसुंदर राय
,मोहित राय-
मोहाल
रामसुंदर राय मोहाल में -१-भरोषा राय २-मनी राय
२-मनी राय -के चार पुत्र बचनु राय ,रामकारण राय
बचनु राय के - लछमी राय और रूपन राय
रामकारण राय के-धूपन राय और बिरोधी राय
धूपन राय और बिरोधी राय (जो एक तैरती )भाई थे .बिरोधी राय के चार पुत्र स्व्तंतासेनानी मास्ट रामाधार राय ,गोपाली राय ,रूपन राय के पुत्र मंगला राय , लछमी राय के पुत्र खेदू राय -१ रमाशंकर राय और रामेस्वर राय ,रमाशंकर राय के पुत्र रामगोबिंद राय और विश्राम राय ,रामेस्वर राय के रबिन्द्र रे मास्टर और रम्ब्यास राय ,रामगोबिंद राय के पुत्र राधेश्याम राय ((पुत्र आनद जी लोकपाल ),विश्राम राय के पुत्र राम निवास राय (पुत्र राधवेंद्र ,विकाश) और हरेराम राय (पुत्र मंत्रा ) है। उत्तर प्रदेश के सुदूर पूर्व के जिले गाजीपुर की मुहम्मदाबाद तहसील पर 18 अगस्त 1942 को तिरंगा लहराने के प्रयास में आठ लोग शहीद हुए। सभी शहीद एक गांव शेरपुर के रहने वाले थे। शहीदों में शेरपुर के ही डा. शिवपूजन राय भी शामिल थे। वह इस आंदोलन के नेता थे। उनका जन्म एक मार्च 1913 में हुआ था। उनके घर के लोग यह तारीख 1910 मानते हैं। यहीं तिथि शहीद स्मारक मुहम्मदाबाद के शिलालेख पर दर्ज है। एक मार्च 1913 की तारीख शेरपुर गांव के पश्चिमी प्राथमिक पाठशाला के रिकार्ड में दर्ज है। उसमें यह भी दर्ज है कि उनको साल में दो कक्षाओं में प्रोन्नति दी गई थी। उनके भाई विश्वनाथ राय, जो सन 1942 में जेल गए थे, उन्होंने बताया था कि उनकी अपनी पैदाइश 1917 की है। इस लिहाज से विद्यालय के रिकार्ड में दर्ज तिथि कुछ ज्यादा गलत नहीं लगती है। इस तिथि का सटीक पता जन्मकुंडली से हो सकता था लेकिन वह भी उपलब्ध नहीं है। दरअसल मुहम्मदाबाद के आंदोलन के बाद गाजीपुर और बलिया जिले आजाद हो गए थे। वहां दोबारा अपनी सत्ता कायम करने के लिए सभ्य अंग्रेजों ने जो बर्बरता दिखाई, उससे जन्मकुंडली तक अछूती नहीं रही। उन्होंने शेरपुर गांव में 80 घरों को जलाकर राख कर डाला और 400 घरों में लूटपाट की। कैसा आतंक रहा होगा इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गांव राधिकारानी उनसे बचने के लिए गड्ढे में कूदना पड़ा और उनकी जान चली गई। यह तो सच का वह हिस्सा जो कहीं दर्ज हो गया है। पर यह बात कहां दर्ज है कि आततायी अंग्रेजों से बचने के लिए गांव के हजारों लोग पलायन कर गए थे। आंदोलन के नायक डा. शिवपूजन राय का घर जब अंग्रेज जला रहे तो उनका परिवार शेरपुर से गहमर की ओर पैदल ही भाग रहा था, जिसमें तीन बच्चे, कुछ महिलाएं थीं। तब जबरदस्त बारिश हो रही थी, जिसमें भींगने के कारण आंखें उलट गई थीं। तब उन्हें भोजपुर जिले के सेमरी गांव में शरण मिली थी। यह परिवार घर की जमापूंजी (चांदी के रुपये और गहने) जमीन में गाड़कर जौ छींट गया था ताकि लौटने पर जौ के सहारे जमीन खोदी जाए और जिंदगी को पटरी पर लाया जा सके। जब जान आफत में हो तो जन्मकुंडली की किसको परवाह थी। घर जला तो उसमें अनाज भी जला और जन्मकुंडलियां भी राख हो गईं।
रामसुंदर राय मोहाल में -१-भरोषा राय २-मनी राय
२-मनी राय -के चार पुत्र बचनु राय ,रामकारण राय
बचनु राय के - लछमी राय और रूपन राय
रामकारण राय के-धूपन राय और बिरोधी राय
धूपन राय और बिरोधी राय (जो एक तैरती )भाई थे .बिरोधी राय के चार पुत्र स्व्तंतासेनानी मास्ट रामाधार राय ,गोपाली राय ,रूपन राय के पुत्र मंगला राय , लछमी राय के पुत्र खेदू राय -१ रमाशंकर राय और रामेस्वर राय ,रमाशंकर राय के पुत्र रामगोबिंद राय और विश्राम राय ,रामेस्वर राय के रबिन्द्र रे मास्टर और रम्ब्यास राय ,रामगोबिंद राय के पुत्र राधेश्याम राय ((पुत्र आनद जी लोकपाल ),विश्राम राय के पुत्र राम निवास राय (पुत्र राधवेंद्र ,विकाश) और हरेराम राय (पुत्र मंत्रा ) है। उत्तर प्रदेश के सुदूर पूर्व के जिले गाजीपुर की मुहम्मदाबाद तहसील पर 18 अगस्त 1942 को तिरंगा लहराने के प्रयास में आठ लोग शहीद हुए। सभी शहीद एक गांव शेरपुर के रहने वाले थे। शहीदों में शेरपुर के ही डा. शिवपूजन राय भी शामिल थे। वह इस आंदोलन के नेता थे। उनका जन्म एक मार्च 1913 में हुआ था। उनके घर के लोग यह तारीख 1910 मानते हैं। यहीं तिथि शहीद स्मारक मुहम्मदाबाद के शिलालेख पर दर्ज है। एक मार्च 1913 की तारीख शेरपुर गांव के पश्चिमी प्राथमिक पाठशाला के रिकार्ड में दर्ज है। उसमें यह भी दर्ज है कि उनको साल में दो कक्षाओं में प्रोन्नति दी गई थी। उनके भाई विश्वनाथ राय, जो सन 1942 में जेल गए थे, उन्होंने बताया था कि उनकी अपनी पैदाइश 1917 की है। इस लिहाज से विद्यालय के रिकार्ड में दर्ज तिथि कुछ ज्यादा गलत नहीं लगती है। इस तिथि का सटीक पता जन्मकुंडली से हो सकता था लेकिन वह भी उपलब्ध नहीं है। दरअसल मुहम्मदाबाद के आंदोलन के बाद गाजीपुर और बलिया जिले आजाद हो गए थे। वहां दोबारा अपनी सत्ता कायम करने के लिए सभ्य अंग्रेजों ने जो बर्बरता दिखाई, उससे जन्मकुंडली तक अछूती नहीं रही। उन्होंने शेरपुर गांव में 80 घरों को जलाकर राख कर डाला और 400 घरों में लूटपाट की। कैसा आतंक रहा होगा इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गांव राधिकारानी उनसे बचने के लिए गड्ढे में कूदना पड़ा और उनकी जान चली गई। यह तो सच का वह हिस्सा जो कहीं दर्ज हो गया है। पर यह बात कहां दर्ज है कि आततायी अंग्रेजों से बचने के लिए गांव के हजारों लोग पलायन कर गए थे। आंदोलन के नायक डा. शिवपूजन राय का घर जब अंग्रेज जला रहे तो उनका परिवार शेरपुर से गहमर की ओर पैदल ही भाग रहा था, जिसमें तीन बच्चे, कुछ महिलाएं थीं। तब जबरदस्त बारिश हो रही थी, जिसमें भींगने के कारण आंखें उलट गई थीं। तब उन्हें भोजपुर जिले के सेमरी गांव में शरण मिली थी। यह परिवार घर की जमापूंजी (चांदी के रुपये और गहने) जमीन में गाड़कर जौ छींट गया था ताकि लौटने पर जौ के सहारे जमीन खोदी जाए और जिंदगी को पटरी पर लाया जा सके। जब जान आफत में हो तो जन्मकुंडली की किसको परवाह थी। घर जला तो उसमें अनाज भी जला और जन्मकुंडलियां भी राख हो गईं।
इतिहास
की दृष्टि से इन बातों को ज्यादा मायने लगता है लेकिन तत्कालीन पीड़ा की झलक इनमें
जरूर है। इतिहासकार की दृष्टि दूर तलक देखती है, कई बार उनको नजदीक की चीजें दिखाई
नहीं देतीं। इसीलिए प्राचीन भारतीय इतिहास पर जितना काम हुआ, उसका चौथाई काम भी
1942 के भारत छोड़ो के जन आंदोलन पर नहीं हुआ। शायद इसलिए भी कि इतिहासकारों ने इसे
ज्यादा पुराना नहीें समझा और उसमें ज्यादा कुछ पड़ताल करने की जरूरत नहीं समझीं। इतिहास
की नई धारा सब आर्ल्टन स्टडीज में इतिहास की जड़ों की तलाश करने की कोशिश की गई। यह
काम भी बाढ़ से उफनाई नदी के बीच की लहरें गिनने के प्रयास की तरह ही साबित हुआ। टुकड़ों
में चीजों को खोजने की यह कोशिश भी किसी बड़े नतीजे पर ले जाती प्रतीत नहीं होती। सबने
यह बात तो कहा कि जनता के आंदोलन की बदौलत 19 अगस्त 1942 को बलिया आजाद हो गया। किसी
ने यह सवाल कहां पूछा कि इससे एक दिन पहले 18 अगस्त को गाजीपुर के मुहम्मदाबाद तहसील
झंडा लहराते समय जो शहादत हुई, उसका क्या प्रभाव हुआ?,करो या मरो आंदोलन के बाद नेशनल
हेराल्ड अखबार का प्रकाशन बंद हो गया था। वर्ष 1945 में जब अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ
तो उसमें बलिया और गाजीपुर में अंग्रेजों के उत्पीड़न की दास्तान प्रकाशित की। गाजीपुर
की नादिरशाही शीर्षक से लिखा- पूर्वांचल (उत्तर प्रदेश) के अन्य जिलों की तरह गाजीपुर
को भी 1942 और उसके बाद क्रूर दमन का शिकार बनना पड़ा। शेरपुर गांव, जहां शेर दिल लोग
रहते हैं। इन लोगों ने कांग्रेस राज की स्थापना कर दी। उनका संगठन बेहतरीन था और उन्होेंने
गांवों में कुछ दिनों तक शांतिपूर्ण तरीके से प्रशासनिक व्यवस्था संभाली। मगर कुछ ही
दिनों बाद हार्डी और उसकी सेना ने मार्च करना शुरू कर दिया और इस प्रशासनिक व्यवस्था
को छिन्न-भिन्न कर डाला। अखबर के मुताबिक 24 अगस्त को गाजीपुर का जिला मजिस्ट्रेट मुनरो
400 बलूची सैनिकों के साथ शेरपुर गांव पहुंचा। निहत्थे ग्रामीण हथियारबंद सेना का सामना
नहीं कर पाए। सेना ने गांव में लूटमार शुरू कर दी। महिलाओं के गहने तक छीने गए। लोग
घर-बार और संपत्ति फेंक कर भागे। इसमें गांव को दो लाख रुपये से अधिक की क्षति हुई।
अखबार
ने आगे लिखा है कि मुनरो का कत्लेआम मुहम्मदाबाद तहसील की गोलीबारी के बाद ही पर्याप्त
नहीं हुआ था उसने छह दिन बाद गांव में लूट और हत्या का नंगा नाच किया। अंग्रेजों के
भय से राधिकारानी गड्ढे में कूद गई और मारी गई। (गौरतलब है कि उस समय गांव में बाढ़
आई हुई थी।) गांव में 80 घर जलाएग और 400 घरों को लूटा गया। अखबार में सिर्फ छह बहादुर
लोगों की शहादत का जिक्र है। हालांकि यहां डा. शिवपूजन राय, ऋषेश्वर राय, वंश नारायण
राय पुत्र ललिता राय, वंश नारायण राय पुत्र जोगेंद्र राय, नारायण राय, राज नारायण राय,
राम बदन उपाध्याय, वशिष्ठ नारायण राय आदि आठ लोग शहीद हुए थे। सीताराम राय, श्याम नारायण
राय, हृदय नारायण राय पाठक जी अंग्रेजों की गोली से घायल हुए और गिरफ्तारी भी झेली।
मुनरों और उसके सैनिकों की लूटपाट में जान बचाने के चक्कर में राधिकारानी नहीं बल्कि
रमाशंकर लाल और खेदन यादव भी मारे गए थे। अंग्रेजी सेना खुखार भेड़िया की तरह शेरपुर
के ग्रामीणों को मारे और लुटे उस समय डॉ शिवपूजन राय नाम के सात लोग थे। सातो लोगो के घर में आग लगाई गयी समाचारों को तत्कालीन इतिहास माना जाता है लेकिन
यहां उसमें भी चूक दिख रही है। यहां दो वंश नारायण हैं, बाबू बुझारथ राय का था जिनके घर में खुद्दी राय जैसे बैरिस्टर थे जिनका वकालतनामा लगना ही जीत की गारंटी थी ॥उन्हीं परिवार में स्वर्गीय नागेश्वर राय आनरेरी मजिस्ट्रेट थे जिनके पुत्र स्वर्गीय नारायण राय शहीद और भाई वंशनारायण राय शहीद हुए ॥ चाचा भतीजे की यह जोड़ी मानसिंह राय परशुराम राय की तरह जुझारू और निडर थी दो वंश नारायण जिसके चलते पत्रकार को चूक का मौका मिला। हालांकि
अखबारे में लिखे नामों में भी कई तरह की चूक है।खबरों को त्वरित इतिहास माना जाता है
लेकिन यहां भी कम चूक नहीं होती। चूक के पीछे कई बार वह मध्यवर्गी दृष्टि है जो आम
आदमी की वास्तविक गाथा तक आसानी से जाने नहीं देती। तमाम तर्कों और प्रमाणों की दुहाई
देते हुए भी इतिहासकार कई बार ऐसी चूक करते हैं। लंदन में रहने वाले एक इतिहासकार,
जिनके लेखन पर तमाम इतिहासकारों को भरोसा था, उन्होंने गांवों में अंग्रेजी राज के
दौरान रुपये में मजदूरी के भुगतान और अनाज की कीमत का चार्ट प्रस्तुत किया है। कई बार
इस तरह के आभाषी चिंतन हमें तंग करते हैं। जनसंघर्ष और मामूली आदमी की गैरमामूली दास्तान
को समझने के लिए ऐसे दृष्टिदोष से उबरना उचित जान पड़ता है। खतरा सूचनाओं की कमी ही
नहीं बल्कि उनके अतिरेक से भी होता है। किसी शायर ने ठीक कहा है कि -सच घटे या बढ़े
तो सच न रहे, झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं। मुहम्मदाबाद शहीद स्मारक समिति के दस्तावेज
में कृपाशंकर राय, रामाधार राय, जमुना राय, जगदीश शास्त्री, रामनरेश यादव, रामबदन को
घायल बताया गया है। उनके साथ 25 लोगों की गिरफ्तारी बाद में हुई थी। शहीद स्मारक समिति
के दस्तावेज में शहीदों की शैक्षणिक योग्यता बढ़ाचढ़ा कर दिखाई गई है। शहीद स्मारक
समिति ने तो एक झंडे को भी सहेज कर रखा है, जिसे अगस्त क्रांति में तहसील पर फहराया
गया तिरंगा बताया जाता है। इतिहास में इस तरह के अतीतमोही कथातत्वों से परहेज भी जरूरी
है। गौर करने वाली बात है कि जहां शहीदों की जन्मकुंडलियां सुरक्षित नहीं बची थीं,
वहां ध्वज कैसे बचा रह गया था।
मुहम्मदाबाद
तहसील की घटना न तो सहसा हुई और न ही उसे इतिहास के कालखंड काटकर किसी अनूठी घटना के
रूप में रेखांकित करने की जरूरत है। मुंबई में 9 अगस्त 1942 को करो या मरो आंदोलन के
ऐलान के बाद उसकी अलग-अलग जगहों पर जुदा-जुदा तरीके से प्रतिक्रियाएं हुईं। हर जगह
की प्रतिक्रिया में वहां के स्थानीय लोगों ने हिस्सा लिया और वे अपनी संस्कृति और समस्याओं
के प्रति अपनी प्रतिक्रिया करने के तौर-तरीके छोड़ कर नहीं आए थे, लिहाजा उन्होंने
अपने तरीके से चीजों को समझा उसे अभिव्यक्त किया। उनका लक्ष्य अंग्रेजों को खदेड़ना
था। इसके लिए वे कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे। लगातार जारी आंदोलनों से देश तैयार
हो चुका था और नौजवानों की एक टीम इस आंदोलन को अंजाम देने में सक्षम हो गई थी। यह
टीम वैचारिक तौर पर सक्षम भी हो चुकी थी।
गरुआ
मकसूदपुर के रहने वाले बेणी माधव राय को पर्चा बंटते समय पुलिस ने पकड़ा था। उन्होंने
1930 में शिवपूजन राय को अपना नेता बताया था। राव साहब के नाम से वह पत्रवाहक का काम
करते थे। गाजीपुर से बलिया के बीच गुप्त पत्र पहुंचाना उनकी जिम्मेदारी थी। वर्ष
1935-36 में वह महानंद मिश्रा के संपर्क में आए थे। गुप्त पर्चे लगातार छपते और बंटते
थे। वाराणसी उनका केंद्र था। डा. शिवपूजन राय 1932 में गाजीपुर जिला कांग्रेस के महामंत्री
थे। गाजीपुर के मिशन स्कूल से उनको एक आंदोलन की अगुआई करने पर उनको, धर्मराज सिंह,
नारायण दत्त और इंद्रदेव सिंंह को निष्कासित किया गया था। उनको आगे की पढ़ाई के लिए
वाराणसी आना पड़ा। यहां जयनारायण कालेज और हिंदू स्कूल में पढ़ाई के दौरान शचिंद्रनाथ
सान्याल से उनका संपर्क हुआ। गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी हुआ तो कोलकाता चले गए और
होम्योपैथिक चिकित्सा हासिल की। हालांकि वह विज्ञान में स्नातक के छात्र थे लेकिन पढ़ाई
पूरी नहीं कर पाए थे। कोलकाता से लौटने के बाद उन्होंने गांव में रहकर लोगों को दवाएं
देनी शुरू की और अंग्रेजों के प्रति गोलबंद करना शुरू किया। वह अनुशीलन समिति और हिंदुस्तान
सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से भी जुड़े रहे। चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों से
उनका गहरा रिश्ता था। आठ अगस्त को मुंबई में भारत छोड़ो ऐलान होने के बाद गाजीपुर जिले
में आंदोलन की आग भड़क गई। नंदगंज, सादात, बनारस, सैदपुर हर जगह अंग्रेजों का विरोध
शुरू हो गया। अगस्त क्रांति की आग अचानक शेरपुर या मुहम्मदाबाद से नहीं भड़की। यमुना
गिरी के नेतृत्व में गौसपुर हवाई अड्डे पर पहले ही तोड़फोड़ हो चुकी थी। बीज गोदाम,
पोस्टाआफिस, रेलवे स्टेशनों आदि में लूटपाट की घटनाएं गाजीपुर जिले में हफ्ते भर चलती
रहीं। मुहम्मदाबाद में जो हुआ उसकी परिणति था। 18 अगस्त 1942 को बाढ़ आई थी। शेरपुर
गांव चारों तरफ से पानी से घिरा था। इसके बावजूद गांव के लोग एकत्रित होने लगे। मंगलवार
का दिन था, लिहाजा बजरंग बली का दर्शन-पूजन के बाद लोग नावों पर सवार होकर सड़क पर
पहुंचे। वहां निर्णायक हमले की रणनीति बनाई गई। तय किया गया कि मजबूत नौजवान तहसील
में पीछे से दाखिल होंगे और नेता आगे से आएंगे। सूचना मिली थी कि तहसील में 35 सशस्त्र
जवान तैनात हैं। तय किया गया कि 70 पहलवान किस्म के युवक पीछे से जाकर उन पर काबू पा
लेंगे। इस तरह गांधी जी की अहिंसा की लाज रह जाएगी और झंडा भी फहरा दिया जाएगा। मगर
तहसील परिसर में दाखिल होते ही नौजवानों की टोली ने जय बजरंग बली का नारा लगाकर सिपाहियों
पर झपट्टा मारा ही था कि गोलियां चलने लगीं। एक के बाद एक तीन लोग वहीं मार दिए गए।
श्यामू दादा ने बंदूक की नाल में उंगली डाल दी और उनकी उंगली उड़ गई। उसके बाद दो बंदूकें
छीन ली गईं। मुख्य गेट की ओर से सुभाष चंद्र बोस जो की शेरपुर में आते थे और कई बार अमर शहीद श्री ऋषेश्वर राय के यहा रुके भी थे। ऋषेश्वर राय ने अपने सारे गहने देश की स्वतन्ता की लगाई के लिये बेच दिये थे और सबसे पहले
मुहम्दाबाद तहसील पर जब लोग पहुंचे और गेट पर खड़े थे उस समय श्री ऋषेश्वर राय ने अपनी आवाज बुलंद करते हुवे "पुलिस हमारे भाई है इनसे नहीं लड़ाई है "आगे बढ़े थे और गोली खाई थी। मुख्य गेट की ओर से डा. शिवपूजन राय के नेतृत्व में आए लोगों पर भी गोलियां चलने लगीं।डा शिवपूजन राय को तीन गोली लगी थी। दो गोली लगने के बाद डॉक्टर साहब बोले सीने पर गोली मारो पैड में नही मै वापस जाने के लिए नहीं आया हु। तीसरी गोली सीने पर लगी फिर भी तिंरगा हाथ में लिये हुवे थे। यही वाक्य श्री रामाधार राय पुत्र श्री बिरोधी राय भी बोले की गोली सीने पर मारो मै अपने दोस्तों के साथ जाना चाहता हु ताकि दोस्तों को ये न लगे की रामाधार साथ छोड दिये।रामाधार राय जब तक जिये इस बात का जिक्र किया करते थे कि तास अग्रेजो के पास एक गोली और होती। मै चाहता था एक और गोली मेरे भी सीने पर लगे। घायलों और मृतकों को वाहनों पर लाद कर अंग्रेज साथ लेते गए। मारे गए लोगों को उन्होंने कठवापुल के पास नदी में प्रवाहित कर दिया। डा. शिवपूजन राय का शव प्राप्त नहीं हुआ।
मुहम्दाबाद तहसील पर जब लोग पहुंचे और गेट पर खड़े थे उस समय श्री ऋषेश्वर राय ने अपनी आवाज बुलंद करते हुवे "पुलिस हमारे भाई है इनसे नहीं लड़ाई है "आगे बढ़े थे और गोली खाई थी। मुख्य गेट की ओर से डा. शिवपूजन राय के नेतृत्व में आए लोगों पर भी गोलियां चलने लगीं।डा शिवपूजन राय को तीन गोली लगी थी। दो गोली लगने के बाद डॉक्टर साहब बोले सीने पर गोली मारो पैड में नही मै वापस जाने के लिए नहीं आया हु। तीसरी गोली सीने पर लगी फिर भी तिंरगा हाथ में लिये हुवे थे। यही वाक्य श्री रामाधार राय पुत्र श्री बिरोधी राय भी बोले की गोली सीने पर मारो मै अपने दोस्तों के साथ जाना चाहता हु ताकि दोस्तों को ये न लगे की रामाधार साथ छोड दिये।रामाधार राय जब तक जिये इस बात का जिक्र किया करते थे कि तास अग्रेजो के पास एक गोली और होती। मै चाहता था एक और गोली मेरे भी सीने पर लगे। घायलों और मृतकों को वाहनों पर लाद कर अंग्रेज साथ लेते गए। मारे गए लोगों को उन्होंने कठवापुल के पास नदी में प्रवाहित कर दिया। डा. शिवपूजन राय का शव प्राप्त नहीं हुआ।
गाजीपुर
और बलिया के क्रांतिकारियों के बीच लगातार संपर्क बना था। लिहाजा इस घटना के अगले दिन
बाद ही आंदोलन की चिनगारी बैरिया, बलिया में फैल गई। इसके नेता महानंद मिश्र थे। उनका
सीधा रिश्ता गाजीपुर के आंदोलनकारियों से था। इस संपर्क को निरंतर बनाए रखने का काम
वेणीमाधव राय करते है, जिनका जिक्र ऊपर किया गया है। बलिया आजाद हो गया। आजादी के बाद
बलिया का गुणगान खूब हुआ लेकिन गाजीपुर को भुला दिया गया। हालांकि 1945 में सूबे में
अंतरिम सरकार बनने के बाद पं. जवाहरलाल नेहरू और फीरोज गांधी बलिया गए और शेरदिल जवानों
का गांव देखने शेरपुर भी आए। शेरपुर के नौजवानों की शहादत भले ही भारत में अख्यात रही
हो लेकिन लंदन में जब भारत के भविष्य पर चर्चा चल रही थी तब गाजीपुर के कलक्टर के उस
डिस्पैच को उद्धृत किया गया, जिसमें उसने कहा था कि पढ़े-लिखे नौजवान सीने पर गोली
मारने का आग्रह कर रहे हैं। अब हिंदुस्तान को गुलाम नहीं रखा जा सकता। बात डा. शिवपूजन
राय की जन्मतिथि से शुरू हुई थी। उसका हमारे पास कोई रिकार्ड नहीं है, सिवाय शेरपुर
के बेसिक प्राइमरी पाठशाला के रिकार्ड के। वहां दी गई जन्मतिथि हेडमास्टर की कल्पना
का हिस्सा है। भारतीय इतिहास की परंपरा लेखन की कम और श्रुति की ज्यादा रही है। यह
बात सुनने को मिली थी। जब डाक्टर शिवपूजन राय होम्योपैथी की पढ़ाई करके गांव आए तो
उन्होंने लोगों को मुफ्त दवाएं देनी शुरू की। उनके पिता वीरनायक राय कंजूस माने जाते
थे। पिता से छुपा कर वह लोगों को दवाएं देते थे। उनकी क्लीनिक भी गांव के ही किसी अन्य
व्यक्ति के दरवाजे पर थी। एक दिन उनके पिता ने पूछा कि दवा देने के बाद वह मरीजों के
कुछ पैसा लेते हैं या नहीं। झिझकते हुए उन्होंने कहा कि ले लेता हूं। उनके पिता ने
कहा कि साल में सौ रुपया हमसे दवा का ले लेना, किसी उसके पैसे मत लेना। जब लोग ठीक
होकर मुस्कुराते हैं तो अच्छा लगता है। यह एक पहलू है लेकिन दूसरा पहलू यह भी है कि
गांव में क्रांतिकारी गतिविधियों का विरोध करने वालों की संख्या भी कम नहीं थी। इन्हीं
दो ध्रुवों के बीच दो हजार से ज्यादा लोग एक ही गांव से तहसील पर झंडा फहराने के लिए
चल पड़े थे क्योंकि जब तूफान आता है तो तिनकों का पता नहीं चलता। चंद्रशेखर आजाद की
मौत के बाद क्रांतिकारी आंदोलन में बिखराव आ गया था लेकिन 1942 में जो कुछ हुआ उसकी
अगुवाई भी सर्वथा नई ताकतों ने की थी क्योंकि कांग्रेस के स्थापित नेता तो जेल जा चुके
थे।
मुहम्मदाबाद
का आंदोलन किसी अन्य क्षेत्रों में अंग्रेजी राज के प्रति भड़के जनाक्रोश की प्रतिकृति
ही दिखाई देता है लेकिन यह कुछ मायनों में अलग भी है। पूरे देश में ऐसा कोई आंदोलन
नहीं हुआ होगा, जिसमें हजारों की संख्या में लोग शामिल हुए हों। शेरपुर से शुरू जुलूस
में मुहम्मदाबाद तक पहुंचते-पहुंचते आसपास के कई गांवों के लोग शामिल हो गए थे। इसमें
महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, जिन्हें तहसील से पहले ही लौटना पड़ा था। यह निरबंसी
आंदोलन भी नहीं था। मुहम्मदाबाद में हुई शहादत के नतीजे निकले। इसकी वजह से देश का
यह हिस्सा 18 अगस्त 1942 को आजाद हो गया। इसके बाद बलिया आजाद हुआ। लोगों ने 26 अगस्त
तक यानी आठ दिनों अपना प्रशासन कायम किया। वह एकदम शांतिपूर्ण था। गांव में दो बंदूकें
आ गई थीं लेकिन दमन के दौरान भी किसी ने उन्हें चलाया नहीं क्योंकि नेता का ऐसा आदेश
नहीं था। इस आंदोलन ने अंग्रेजों और कांग्रेस के नेताओं को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर
किया। फारवर्ड ब्लाक की स्थापना का चित्र



ईस चित्र मे पिछे लाइन मे काली सदरी व सफेद टोपी मे डा .शिव पूजन राय खड़े हैं . शहीद स्मारक समिति के मुखिया लक्ष्मण राय
कारण
यही था शुरू से ये जाति के लोग लडाकू प्रबृति के थे। किसी कि गुलामी पसंद नही थी। यह
वश (१५२६ - १५४० ) मुगलो या किसी की भी गुलाम
नही हुवा। शेरशाह के साथ कुछ सहयोग की बाते
चल रही थी , कुछ इतिहारकरो के नुसार १५३9 (हिमायु और शेरशाह सूरी ) चौसा युद्ध के समय
मुगल सेना शेरपुर के उत्तर दिशा से होते हुये बीरपुर पहुची थी, बीरपुर के पूरब दिशा से गंगा नदी पार की थी. ये
काबिले के रूप में रहा करते थे। अर्थात उच्चय श्रेरि की वीर आर्य कबीली जातिया थी
भविष्य पुराण' के अनुसार वर्ण-व्यवस्था ईरान के ब्राह्मणों
की देन है। उन्होंने ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियों में समाज को बांटा
था। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि ईरानी पुरोहित मग ज्योतिष विद्या में पारंगत थे।
मग ब्राह्मणों के अतिरिक्त भोजक और अग्नि उपासक भी ईरान से यहाँ आए थे, जो बाद में
'आर्य' कहलाने लगे। लगभग 1700 ई. पू. में हिन्द-आर्य कबीलों ने यूरोप से आकर सिन्धु
घाटी में आक्रमण किया और भारत की देशी सिन्धु घाटी सभ्यता को उजाड़ दिया और उसके निवासियों
का नरसंहार किया और बाद में बचे-खुचे लोगों को ग़ुलाम बना लिया, जिनको ऋग्वेद में दास
और दस्यु कहा गया है। इस तरह वह अपने उपनिवेशवाद को सही ठहराना चाहते थे।[1]
आर्य
शब्द का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था फिर उच्च और निम्न अथवा श्रमिक
वर्ग में अंतर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और अनार्य अथवा शूद्र वर्ण का प्रयोग होने लगा
। आर्यों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्ण को बनाया और समाज चार वर्णों में वृत्ति
और श्रम के आधार पर विभक्त हुआ । ऋक्संहिता में चारों वर्णों की उत्पत्ति और कार्य
का उल्लेख इस प्रकार है :
ब्राहृणोऽस्य
मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: ।
ऊरू
तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रोऽजायत ।। [2]
ऋग्वेद
भारत की ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की प्राचीनतम रचना है। इसकी तिथि 1500 से 1000 ई.पू.
मानी जाती है। सम्भवतः इसकी रचना सप्त-सैंधव प्रदेश में हुयी थी। ऋग्वेद और ईरानी ग्रन्थ
'जेंद अवेस्ता' में समानता पाई जाती है। ऋग्वेद के अधिकांश भाग में देवताओं की स्तुतिपरक
ऋचाएं हैं, यद्यपि उनमें ठोस ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम मिलती है, फिर भी इसके कुछ मन्त्र
ठोस ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध करते हैं। जैसे एक स्थान ‘दाशराज्ञ युद्ध‘ जो भरत कबीले के राजा सुदास एवं पुरू कबीले के मध्य
हुआ था, का वर्णन किया गया है। भरत जन के नेता सुदास के मुख्य पुरोहित वसिष्ठ थे, जब
कि इनके विरोधी दस जनों (आर्य और अनार्य) के संघ के पुरोहित विश्वामित्र थे। दस जनों
के संघ में- पांच जनो के अतिरिक्त- अलिन, पक्थ, भलनसु, शिव तथ विज्ञाषिन के राजा सम्मिलित
थे। भरत जन का राजवंश त्रित्सुजन मालूम पड़ता है, जिसके प्रतिनिधि देवदास एवं सुदास
थे। भरत जन के नेता सुदास ने रावी (परुष्णी) नदी के तट पर उस राजाओं के संघ को पराजित
कर ऋग्वैदिक भारत के चक्रवर्ती शासक के पद पर अधिष्ठित हुए। ऋग्वेद में, यदु, द्रुह्यु,
तुर्वश, पुरू और अनु पांच जनों का वर्णन मिलता है।
देश
आज़ाद हुआ बापू अयोद्धा राय निष्पक्छ ग्राम प्रधान चुने गये।आयोध्या राय जी 1952 तक प्रधान थे .महेन्द्र राय जी जब प्रधान हुए तब उन दोनो लोगो मे लालटेन के चार्ज को लेकर विवाद था .महेन्द्र राय जी के समय भी लालटेन जलती थी उससे पहले ग्राम सभा मे लालटेन
सभी सार्वजनिक जगहो पे जलाती थी .उसमे रायसाहब के दरवाजे पे लगी लालटेन बहुत दिनो तक थी.लल्लू बाबू के प्रयास से ही 1960 मे बिजली लगी थी .इसिलिए मीडील स्कुल पे एक ही ट्रांसफार्मर लगाया गया था और आधे गाब मे ही तार भी लगा था महेन्द्र राय के समय 1975 में शेरपुर हरिजन बस्ती काण्ड एक घटना घटी थी , वो एक घटना थी या दुर्धटना की शरारती तत्यो की शरारत या थी एक रणनीति। उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री हेमंती नंदन बहगुरा जी भी आये थे लेकिन कोई उनको देखने भी नहीं गया।हरि शरण राम कहते हैं, "हमने सोचा कि हम भी दूसरों की तरह हो सकते हैं, आराम से अपना स्थान ले सकते हैं।"
अप्रैल 1 9 75 में, उन्हें अपनी जगह दिखाया गया था ब्रिटिश शासन ने गांव को जलाने के 33 साल बाद दलित बस्ती को फिर से जला दिया। इस बार भूमिहिरों द्वारा राधेशाम ने कहा, "मजदूरी दर पर विवाद थे" हम अपने बस्ती में एक घटना के लिए दोषी ठहराया गया। मन में करो, हम अपने घरों में और अपने घरों में काम कर रहे थे, जबकि हमारे घर जल रहे थे! "करीब 100 घरों को ढकेल दिया गया। लेकिन, उन्होंने स्पष्ट किया, शहीद पत्री में से कोई भी शामिल नहीं था दलित समिति के प्रमुख शिव जगन राम कहते हैं, "पंडित बहुगुणा मुख्यमंत्री थे" "वह आए और कहा: 'हम आपके लिए यहां नई दिल्ली का निर्माण करेंगे' ' हमारी नई दिल्ली में अच्छे नज़रिए यहां तक कि इस नीच मलिन बस्ति में भी हमारे पास कुछ कागज़ात नहीं है जो कहता है कि हम खुद कुछ भी हैं। मजदूरी के विवाद शेष रहते हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि यहां लोगों को इतनी कम कमाई है कि हम काम के लिए बिहार जाएंगे? " क्या शेरपुर को अभी कत कोई परिपक राजनितिक ब्यक्ति नहीं मिला जो शेरपुर को आगे कत ले जाये।क्या ग्राम प्रधान कोई समाज सेवा के लिये बनता है या राजनीती में अपनी कैरियर के लिये, लोग कहते है “ महेन्दर राय की तपिश थी वो चाहे तो विधायक बन सकते थे लोगों ने आग्रह भी किया पर उन्होंने गाँव के लिए ही इसे ठुकरा दिया” मै कहता हु “जब गदहे की सवारी से ही सब दुरी तय होर ही हो तो भला शेर की सवारी कौन करे गा। भला बड़े पोस्ट कौन नहीं चाहता महेन्दर राय को मिले तब तो ।“ लोग कहते है “हरिजन नक्सली बने थे “, “क्या एक यही तरीका था उस समस्या के निपटने का अपना ही गांव में आग लगाना । “ उन लोग के अनुसार .क्या सभी हरिजन दोसी थे। जो फसे जेल गये उनका परिवार बर्बाद हुआ जिनकी कोई सम्बन्ध भी नहीं था उस घटना से . गांव बनता है हर एक जाति हर एक धर्म के मिलकर। समस्या का निदान शन्तितरह भी होता है। सिर्फ भूमिहार वाद से नहीं ये तो दबंगई हुआ। गांव में सभी का रहने जीने का अधिकार है सिर्फ भूमिहार का नहीं। गांव सभी है केवर भूमिहार का नहीं। यही सोच बदलना होगा शेरपुर में हॉस्पिटलो की स्थिति जहाँ न कुक्ते काटने पर दवा मिलती है , न हीं सर्प काटने पर दवा मिलती है। महिलाओ के प्रसव की सुबिधा नहीं है। आज भी लोगो को मुहम्मदाबाद और ग़ाज़ीपुर रात में जाना पड़ता है। कितने कुओ में पीने का पानी है। कितने हैंडपम्प सही है।नलकूपों की स्थिति क्या है.. कितने रास्ते में बारिस का पानी निकने की सुबिधा है। कितने बच्चे कुपोशण है। कितने बच्चे को स्कूल में सही सर्बभौमिक विकाश हो रहा है। क्या ग्रामप्रधान कभी कहि दौड़ा नहीं किये है। ग्रामप्रधान की चुनाव किस मुददे पर लङते है। क्या यही सही विकाश है आप के गांव का। जो समाज को तोड़ने का आपस में लड़ाने का कार्य करे। जो अपने बिचार अपने बेवहार से समाज में नफरत पैदा करे वो पुरे देश और पुरे समाज का विभूति नहीं हो सकता। आरक्षण ने समाज को आपस में सिर्फ बाटने का कार्य किया है जोड़ने का नहीं। आरक्षण कोई गलत शब्द नहीं है लेकिन जिसको मिलना चाहिये उसे अभी तक नहीं मिला। किसी जाति या धर्म पर नहीं बल्कि ब्यक्ति की आर्थिक और समाजिक स्थिति के अनुसार होना चाहिये। शेरपुर में बहुत सारे कहने के लिये बिभूतियाँ हुये है लेकिन समाज के लिये एक दो लोगो ने ही कार्य किये है। बाकी अन्य शेरपुर के बिभूतियाँ क्या कार्य करते है। जो लम्बी लम्बी बाहें फेकते, राजनीति के दोति बिछाते ,गांव के चौराहे (चक्की )पर बहस करते नजर आते है। जो शेरपुर के गरिमा को सभी के सामने उतार कर रख देते है , क्या ये ही शेरपुर के बिभूतियाँ है। आने वाले कल का निर्माण करे गे जिनके कन्धों पर शेरपुर की जिम्मेदारी लोग सौंपते है। जोकि अपने परिवार का भार भी नहीं उठा पते। वे समाज का भार कहा कत उठाये गे. ... हमे सोच समझ कर ही लोगो को आगे लाना चाहिये। .. जो लोगो का भला कर सके। . अवधेश राय शात्री बिधायक हुए 25 तिव्वळ गाँव को दिए जसके कारण 25 लोगो को नौकरी मिली शेर पुर का शहीद इण्टर collage में बच्चो को बैठने और बारिश में छिपने का कोई बेवस्था नहीं था तो अनिल काका ने स्कुल व गाँव के नवजवानो के साथ मिलकर भिछाटन से उस कमी की पूर्ति किये। जो बाद में उनकी धर्मपत्नी सुशीला राय ग्रामप्रधान चुने गये लेकिन बिपरीत परिथितियों के कारण वो ज्यादा सफलता तो नही पाये उनके बाद ललन राय के अथक प्रयास द्वारा श्री मति बिजुला राय ग्रामप्रधान बनी। पूरा गाँव में मिटटी और इट की सड़के तो बनी लेकिन बारिष और बाढ़ द्वारा आधा बह गयी ये भी। ये भी कुछ ज्यादा नहीं कर पाये। जहा आज भी गाँव में सर्प ,बिछू काटना पर दवा नहीं मिलती है शेरपुर में पढ़े लिखे लोग भी मूर्खो जैसे बाते करते नजर आते है जैसे -
अप्रैल 1 9 75 में, उन्हें अपनी जगह दिखाया गया था ब्रिटिश शासन ने गांव को जलाने के 33 साल बाद दलित बस्ती को फिर से जला दिया। इस बार भूमिहिरों द्वारा राधेशाम ने कहा, "मजदूरी दर पर विवाद थे" हम अपने बस्ती में एक घटना के लिए दोषी ठहराया गया। मन में करो, हम अपने घरों में और अपने घरों में काम कर रहे थे, जबकि हमारे घर जल रहे थे! "करीब 100 घरों को ढकेल दिया गया। लेकिन, उन्होंने स्पष्ट किया, शहीद पत्री में से कोई भी शामिल नहीं था दलित समिति के प्रमुख शिव जगन राम कहते हैं, "पंडित बहुगुणा मुख्यमंत्री थे" "वह आए और कहा: 'हम आपके लिए यहां नई दिल्ली का निर्माण करेंगे' ' हमारी नई दिल्ली में अच्छे नज़रिए यहां तक कि इस नीच मलिन बस्ति में भी हमारे पास कुछ कागज़ात नहीं है जो कहता है कि हम खुद कुछ भी हैं। मजदूरी के विवाद शेष रहते हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि यहां लोगों को इतनी कम कमाई है कि हम काम के लिए बिहार जाएंगे? " क्या शेरपुर को अभी कत कोई परिपक राजनितिक ब्यक्ति नहीं मिला जो शेरपुर को आगे कत ले जाये।क्या ग्राम प्रधान कोई समाज सेवा के लिये बनता है या राजनीती में अपनी कैरियर के लिये, लोग कहते है “ महेन्दर राय की तपिश थी वो चाहे तो विधायक बन सकते थे लोगों ने आग्रह भी किया पर उन्होंने गाँव के लिए ही इसे ठुकरा दिया” मै कहता हु “जब गदहे की सवारी से ही सब दुरी तय होर ही हो तो भला शेर की सवारी कौन करे गा। भला बड़े पोस्ट कौन नहीं चाहता महेन्दर राय को मिले तब तो ।“ लोग कहते है “हरिजन नक्सली बने थे “, “क्या एक यही तरीका था उस समस्या के निपटने का अपना ही गांव में आग लगाना । “ उन लोग के अनुसार .क्या सभी हरिजन दोसी थे। जो फसे जेल गये उनका परिवार बर्बाद हुआ जिनकी कोई सम्बन्ध भी नहीं था उस घटना से . गांव बनता है हर एक जाति हर एक धर्म के मिलकर। समस्या का निदान शन्तितरह भी होता है। सिर्फ भूमिहार वाद से नहीं ये तो दबंगई हुआ। गांव में सभी का रहने जीने का अधिकार है सिर्फ भूमिहार का नहीं। गांव सभी है केवर भूमिहार का नहीं। यही सोच बदलना होगा शेरपुर में हॉस्पिटलो की स्थिति जहाँ न कुक्ते काटने पर दवा मिलती है , न हीं सर्प काटने पर दवा मिलती है। महिलाओ के प्रसव की सुबिधा नहीं है। आज भी लोगो को मुहम्मदाबाद और ग़ाज़ीपुर रात में जाना पड़ता है। कितने कुओ में पीने का पानी है। कितने हैंडपम्प सही है।नलकूपों की स्थिति क्या है.. कितने रास्ते में बारिस का पानी निकने की सुबिधा है। कितने बच्चे कुपोशण है। कितने बच्चे को स्कूल में सही सर्बभौमिक विकाश हो रहा है। क्या ग्रामप्रधान कभी कहि दौड़ा नहीं किये है। ग्रामप्रधान की चुनाव किस मुददे पर लङते है। क्या यही सही विकाश है आप के गांव का। जो समाज को तोड़ने का आपस में लड़ाने का कार्य करे। जो अपने बिचार अपने बेवहार से समाज में नफरत पैदा करे वो पुरे देश और पुरे समाज का विभूति नहीं हो सकता। आरक्षण ने समाज को आपस में सिर्फ बाटने का कार्य किया है जोड़ने का नहीं। आरक्षण कोई गलत शब्द नहीं है लेकिन जिसको मिलना चाहिये उसे अभी तक नहीं मिला। किसी जाति या धर्म पर नहीं बल्कि ब्यक्ति की आर्थिक और समाजिक स्थिति के अनुसार होना चाहिये। शेरपुर में बहुत सारे कहने के लिये बिभूतियाँ हुये है लेकिन समाज के लिये एक दो लोगो ने ही कार्य किये है। बाकी अन्य शेरपुर के बिभूतियाँ क्या कार्य करते है। जो लम्बी लम्बी बाहें फेकते, राजनीति के दोति बिछाते ,गांव के चौराहे (चक्की )पर बहस करते नजर आते है। जो शेरपुर के गरिमा को सभी के सामने उतार कर रख देते है , क्या ये ही शेरपुर के बिभूतियाँ है। आने वाले कल का निर्माण करे गे जिनके कन्धों पर शेरपुर की जिम्मेदारी लोग सौंपते है। जोकि अपने परिवार का भार भी नहीं उठा पते। वे समाज का भार कहा कत उठाये गे. ... हमे सोच समझ कर ही लोगो को आगे लाना चाहिये। .. जो लोगो का भला कर सके। . अवधेश राय शात्री बिधायक हुए 25 तिव्वळ गाँव को दिए जसके कारण 25 लोगो को नौकरी मिली शेर पुर का शहीद इण्टर collage में बच्चो को बैठने और बारिश में छिपने का कोई बेवस्था नहीं था तो अनिल काका ने स्कुल व गाँव के नवजवानो के साथ मिलकर भिछाटन से उस कमी की पूर्ति किये। जो बाद में उनकी धर्मपत्नी सुशीला राय ग्रामप्रधान चुने गये लेकिन बिपरीत परिथितियों के कारण वो ज्यादा सफलता तो नही पाये उनके बाद ललन राय के अथक प्रयास द्वारा श्री मति बिजुला राय ग्रामप्रधान बनी। पूरा गाँव में मिटटी और इट की सड़के तो बनी लेकिन बारिष और बाढ़ द्वारा आधा बह गयी ये भी। ये भी कुछ ज्यादा नहीं कर पाये। जहा आज भी गाँव में सर्प ,बिछू काटना पर दवा नहीं मिलती है शेरपुर में पढ़े लिखे लोग भी मूर्खो जैसे बाते करते नजर आते है जैसे -
१-शेरपुर के
लोग अपने खेत
की जोताई करे
या ना करे।
खेत की मेढ़
अथार्त डार की
जोताई जरूर करते
है
२-हम लोग
अपने घर ,दरवाजे
की सफाई करे
या ना करे
लेकिन कूड़ा - कवाली
,अरथात -बथुआ ,बहारन
अपने घर और
दरवाजे के सामने
की नाली
में जरूर डाले
गे की पानी
हमारे तरफ से
ना आपये। दीवारे
गिरे गी मिट्टी
बहे गी तो
कौन बनवाये गा
किसी का बाप।
पुस्तैनी अधिकार है।
३-गाँव में परती
क्यों छोडा जाता
है ताकि लोग
झाड़ा फिर सके
और ये लोग
यही पर पता
नहीं काया क्या
संकरवार वंश शिरोमरीय एवं राणा सांगा के परम् मित्र काम देव और धाम देव जी। आप ने कौम की एकता और धर्म रछा
के
लिये जो व्रत लिये थे आप जीवन प्रयत्न निर्वाह किये। जिसकी एक छोटी सी झलक 1190 पृथ्बीराज के साथ महोबा का युध्य जिसमे सांकरवार वंश के महान योद्धाओं द्वारा पृथ्बीराज के परम मित्र संजय सिन्ग मारे गये थे। 17 मार्च 1527 खनवा के युध्य
1928 में मदारपुर , 1530 में सकराडीह और 27 जून 1539 ई. चौसा के युध्यो में देखने को मिलता है।
हमे गर्व हैं की मैने आप के कौम में आप के वंश मे जनम लिया .
ऐसे वीर पुरुषो को सत -सत नमन
विश्राम
राय
शेरपुर
अति सुदंर
जवाब देंहटाएंमुझे पिपरा खेम सकरवार वंशावली कि जानकारी चाहिए
जवाब देंहटाएंBaba dhangal singh ke putra shree dayal singh son shree shirwant singh son shri dina singh son shri sita singh son shri rajendra singh...
हटाएंरेवतीपुर के कस्तूआर भूमिहारों के इतिहास पर भी प्रकाश डालें।
जवाब देंहटाएंशेरपुर के संकरवार वंस के विषय में यदि कहा जाय की इस वंस का सम्बन्ध नाग वंस से है। तो कहा तक सत्य होगा ?. इस विषय पर गहन अध्यन की जरूरत है। ये सिर्फ एक कल्पना और वकवास ही नहीं बल्कि एक जातिगत उतप्ति का विषय है।इस वंश के कोई व्यक्ति क्या कभी अपना गुरसूत्र का वैज्ञानिक अध्ययन किया है यदि नहीं तो करना चाहिये ?.
जवाब देंहटाएंनाग वंस से लोगो की धारणा क्या किसी सर्प ,या नाग से है। यदि ऐसा है तो अपनी धारणा बदलने की जरूरत है। नाग वंस एक जाति थी जो हर एक इंसान की तरह ही थी। ये एक उच्य कोटि की मनुष्य जाति थी जिसको धार्मिक धर्म ग्रंथो में आर्य नाम से उल्लेख किया गया है। महाभारत काल में राजा परीक्षित को नाग वंस के राजा तक्षत ने सर्प की तरह कोई काटा नहीं था बल्कि युध्य में शत्रु की तरह बध्य किये थे। ये एक युध्य था जो दो धुर्य विरोधयों के बिच होना पाया जाता है।जिस युध्य में राजा परीक्षित के मृत्यु के बाद उनके पुत्र जनमेजय ने युध्य जारी रखा और नाग वंस के बहुत सारे स्थानो पर नहीं केवर युध्य किये बल्कि नाग वंशियो के लोगो को जो ग्रामीण या किसी तरह से राजा जनमेजय द्वारा गिरपतार अर्थात बंदी बनाये जा चुके थे उन्हें जिन्दा जला दिया गया। ये युध्य नाग वंशियो को पूर्ण रूप से पृथ्वी से समाप्त करने के उदेश्य से हुआ था। इस युध्य को अन्य दूसरे राजाओ के हस्तक्षेप द्वारा रोका जा सका। महात्मा तक्षक ने ही तक्षक शिला (-तक्षशिला) बसाकर अपने कुल के लोगो को शिक्षित कर मजबूती प्रदान करने का कार्य किये थे। इस तरह आज भी पुरे भारत में ये जातीय फैली हुई है। इतिहास को खरासने पर अन्य तथ्य सामने आते है। राजा परीक्षित के समय ही कलयुग का आगमन हो चुका था और उस समय के अस्त्र शास्त्र जो तंत्र मंत्र द्वारा चलयमान होते थे वे निक्रिय हो चुके थे। बैदिक ज्ञान का ह्रास प्रारम्भ हो चूका था राजा जनमेजय के समय तक तो बहुत कुछ बदल चूका था। जिसको लोग नाग यज्ञ की संज्ञा देते है वो एक युध्य रूपी यज्ञ था। वह कोई तंत्र मंत्र का यज्ञ नहीं था। जो अन्य ग्रंथो में मिलता है। इस युध्य में नाग वंशियो ने अपने प्राणो की आहुति दिये है। वे हथियारों द्वारा एक वीर योध्या की तरह पूर्ण युध्य लड़े है।
हर युध्य में हार जीत होना एक अलग बात है। हार जीत क्या वीरता की पहचान अमर है।
कन्या कुञ्ज बंशावली के अनुसार आगे चलकर कन्या कुञ्ज में संकरवार वंस हुआ और वर्ण वेवस्था के अनुरूप संकरवार वंस बहुत सारी जाति , धर्म के रूप में बटा। इसी में ब्राह्मण , भूमिहार ,खत्री व मुश्लिम भी हुये।
हरेराम राय 'शेरपुर '
हरेराम जी शेरपुर के इतिहास में बाबू बुझारथ राय के परिवार की व्याख्या में कंजूसी मत करिये
जवाब देंहटाएंद्रोण टिकार भूमिहार के बारे में भी कुछ लिखिए जो टिकारी के राजा सुंदर सिंह एवं उनके पूर्वज थे
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकृपया ये भी बताए कि सांकृत गोत्र के कान्यकुब्ज शुक्ल ब्राह्मणों की उत्पत्ति कहां से हुई?🙏🙏
जवाब देंहटाएंधन्यबाद... आपने ब्राह्मणो के बारे में बहुतअच्छी जानकारी साझा की... ब्राह्मण वंशावली
जवाब देंहटाएंसर नमस्कार।आपने तार्किक विश्लेषण के साथ एक पुख्ता जानकारी कै साझा किया है।इसके लिए आपको कोटिशः धन्यवाद।आपसे निवेदन है कि इस इतिहासपरक लेख का यदि संदर्भ सूची साझा करें तो बड़ा काम होता।
जवाब देंहटाएंJinka ap name le rahe hain rao dham dev sikarwar unke vansaj rajput hain ab ap jabardasti kuch bhi likh dena to wo pramanik nahi hota. Sikarwar rajput rajputon ka abhinn ang hai aur vijaypur sikri jo ki rajputon ka rajya tha wo kisi brahmin ka rajya nahi tha. Aur uski ke 3 vansaj huye kam dev sikarwar dham dev sikarwar aur vikram dev sikarwar. Inke name ke sath kahi misir ya bhumihar nahi aata
जवाब देंहटाएंIsi ko kehte hai milaaoti gyaan.bhenchod gaand me tamboora daal dunga.
जवाब देंहटाएंGood Fictional Story. Milawati Quam Milawati baatein.
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